लोहड़ी के दूसरे दिन मुक्तसर में लगता है एतिहासिक मेला माघी
देश विदेश से पहुंचते हैं लाखों श्रद्धालू
मुख्यत: लोहड़ी पर्व मकर संक्रान्ति के
एक दिन पहले पौष माह की अंतिम रात्रि को
अत्यंत धूमधाम के साथ मनाया जाता है। पंजाब ही नहीं बल्कि समूचे उत्तरभारत में
हर्षोल्लास के साथ मनाया जाने वाला यह मुख्य पर्व है। उत्तर भारत विशेषकर
पंजाब में इसकी धूम देखते ही बनती है। इस दिन लोग रात्रि में आग के चारों तरफ चक्कर
लगाकर उसमें रेवड़ी, मूंगफली, लावा आदि को अग्नि
को समर्पित कर उसका प्रसाद ग्रहण करते हैं। पंजाब में लोग आग के चारों तरफ झूम-झूम
कर भागंडा करते हैं।
लोहड़ी मनाने के पीछे हैं कई कथाएं
हालांकि लोहड़ी को मनाने के पीछे कई कथाएं हैं लेकिन
सबसे बड़ा कारण होता है शीत ऋतु की सबसे बड़ी रात को सेलेब्रेट करना। लोहड़ी के अगले
दिन से सूर्य की गति दक्षिणायन की जगह उत्तरायण हो जाती है। कई लोग यह भी मानते हैं
कि इस त्यौहार का संबंध माता पार्वती से जुड़ा हुआ है।
यह भी माना जाता है कि
पूर्वजों द्वारा ठंड से बचने के लिए एक मन्त्र जपा गया था। इस मन्त्र के द्वारा
सूर्य से प्रार्थना की गई थी कि वह पौष माह में अपनी किरणों से पृथ्वी को इतनी
गर्मी प्रदान करे कि पौष माह की ठंड किसी भी व्यक्ति को नुकसान न पहुंचा सके। वे
लोग इस मन्त्र को पौष माह की अंतिम रात्रि को अग्नि के सामने बैठकर बोलते थे।
जिसका भावार्थ यही होता था कि सूर्य ने उन्हें ठंड से बचा लिया है। लोहड़ी एक तरह
से सूर्य के प्रति आभार प्रकट करने के लिए हवन की अग्नि कही जा सकती है। ऐसा माना
जाता है कि तभी से लोहड़ी के पर्व की शुरूआत हुई।
ऐसा भी कहा जाता है कि दक्ष प्रजापति की पुत्री सती के अग्नि में
दहन होने की याद में ही यह अग्नि जलाई जाती है। लेकिन पंजाब में इस त्यौहार को मनाने
के पीछे दुल्ला भट्टी की कहानी को अधिक माना जाता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण लोहड़ी
के गीतों का केन्द्र भी ज्यादातर दुल्ला भट्टी ही होते हैं।
दुल्ला भट्टी और सुंदर-मुंदरिए गीत रहते हैं जबान पर
इस पर्व से संबंधित यूं तो
अनेक गीत हैं लेकिन लोहड़ी के दिनों में दुल्ला भट्टी के साथ सुंदर मुंदरिए का
गीत भी संपूर्ण पंजाब में बच्चे बच्चे की जुबान पर रहता है। इस गीत में सांदल
बार के पंजाब के नायक के तौर पर जाने जाते दुल्ला भट्टी का यश गान किया गया है,
किस तरह से उसने अत्याचारियों के हाथों से एक लड़की को छुड़वाकर उसका विवाह अपनी
बेटी की तरह ही किया था। इस गीत में अपने देश की बहन बेटियों की रक्षा करने तथा
उनकी इज्जत पर हाथ डालने वाले अत्याचारियों को सजा देने का संदेश दिया गया है।
इस प्रकार लोहड़ी नारी सुरक्षा का संदेश भी देती है।
पंजाब में लोहड़ी पर मुख्यत गाया जाता है यह गीत : सुंदर मुंदरिये ..................हो तेरा कौन बेचारा, .................हो दुल्ला भट्टी वाला, ...............हो दुल्ले दी घी व्याही, ..................हो सेर शक्कर आई, .................हो कुड़ी दे बाझे
पाई, .................हो कुड़ी दा लाल पटारा, ...............हो...
बधाइयों
का पर्व है लोहड़ी
इस दिन से शीतकाल की कड़क
सर्दी से राहत मिलने की आशा में लोग खुशियां मनाते हैं। इसके पीछे एक मान्यता यह
भी थी कि अग्नि की ऊंची-ऊंची लपटें सूर्य तक उनका संदेश पहुंचा देती है। इसीलिए लोहड़ी की अगली सुबह से ही सूर्य की किरणें शरद
ऋतु का प्रभाव कम करना शुरू कर देती हैं। वास्तव में यह अग्नि-पूजा का ही उत्सव है।
लोहड़ी के दिन लोहड़ी की अग्नि से वंश वृद्धि के लिए प्रार्थना की जाती है। अग्नि
में तिल डालकर पुत्र के लिए वर मांगे जाते हैं। इसीलिए नवजात शिशुओं और नव-विवाहित
पुत्र की खुशी में लोहड़ी जलाई जाती है। इस दिन नवजात शिशुओं और उनकी माताओं को
बधाई देने उनके घर जाते हैं। यह लोहड़ी के पर्व की एक परम्परा है।
बांटी जाती है रेवड़ी मूंगफली
परिवार में बेटे की शादी या पुत्ररत्न की
प्राप्ति होने पर पहले साल लोहड़ी का महत्व और भी बढ़ जाता है। नवविवाहित
लड़कियों को बाबुल के घर से उपहार प्राप्त होते हैं, तथा लड़की के मायके से आई
रेवड़ी व मूंगफली पास पड़ोस में बांटी जाती है।
एकता का
संदेश भी देती है लोहड़ी
इस पर्व से कुछ दिन पूर्व से ही बच्चे व युवा बिना किसी भेदभाव के घर-घर जाकर उपले तथा पैसे मांगते हैं। लोहड़ी के दिन एकत्रित राशि से लकड़ियां खरीदी जाती हैं। सूरज छिपने से पूर्व ही लोहड़ी मनाने वाले स्थान की सफाई की जाती है तत्पश्चात वहाँ पर शुद्ध जल का छिड़काव किया जाता है। इसके बाद एकत्रित लकड़ियों को एक वृत के दायरे में ऊँचा कर इस प्रकार लगाया जाता है कि लकड़ियों के मध्य में हवा आने-जाने के लिए स्थान रहे. लकड़ियों के बीच में उपले लगाए जाते हैं तथा कच्ची लकड़ियाँ व बुरादा आदि डाला जाता है।
ऐसे मनाते हैं लोहड़ी
सूरज
के अस्त होने के साथ ही लोग लोहड़ी मनाने के स्थान पर एकत्रित होते हैं. लोग अपने
साथ घरों से रेवड़ी, मूंगफली, मक्की के फूले आदि लेकर आते हैं। इस अवसर पर नव विवाहिता स्त्रियाँ विशेष श्रृंगार कर आती हैं। नवजात शिशु भी नए वस्त्र धारण करते हैं। जब सभी लोग इकट्ठे हो जाते हैं, तब उस लकड़ियाँ के ढेर में वहाँ
उपस्थित सबसे वृद्ध व्यक्ति के हाथों से अग्नि प्रज्जवलित की जाती है। सभी लोग उस अग्नि के चारों ओर घूमते हैं और अपने साथ लाए रेवड़ी, मूँगफली, मक्की के फूले थोडा-थोडा अग्नि
में डालते जाते हैं। जब लकड़ियों के ढेर में
आग अच्छी तरह से लग जाती है, तब सभी इकट्ठे हुए लोग खुशी से
झूम उठते हैं। आग के कारण सभी के चेहरे
स्वर्ण की भांति दमकने लगते हैं। इसके साथ
ही उन चीजों के खाने का दौर चलता है, जो सभी लोग अपने साथ लाते हैं। सभी लोग खाने की चीजें आपस में बांटकर खाते हैं। इस अवसर पर लोकगीत गाए जाते हैं, नाच-गाना होता है। ढोल बजाए जाते हैं।
पंजाब का सबसे प्रसिद्ध भांगड़ा नृत्य किया जाता है। देर रात तक लोहड़ी वाले स्थान पर बैठने, नाच-गाने, खुशी मनाने के पश्चात् सभी लोग
अपने-अपने घर चले जाते हैं।
अगले
दिन सूर्योदय से पूर्व ही लोग स्नान कर जली हुई लकड़ियों एवं उपलों की रख को
अपने-अपने घरों में ले जाते हैं। इस तथ्य के
पीछे यह मान्यता है कि यह उन उपलों एवं लकड़ियों की पवित्र राख होती है, जो सामूहिक सुरक्षा, कुल की वृद्धि और जीवन की खुशी के
लिए जलाए जाते हैं।
स्वास्थ्य का सन्देश भी देता है लोहड़ी पर्व
लोहड़ी
के दिन सरसों का साग, गन्ने के रस की खीर तथा मोठ की
खिचड़ी बनाए जाने की परम्परा है। इस दिन इन
व्यंजनों को बनाए जाने के पीछे यह मान्यता है कि पौष माह में कड़क सर्दी से शरीर का
सारा खून जम जाता है। हम आग सेंककर और गर्म
चीजें खाकर सर्दी से बचते हैं. माघ मास के प्रारम्भ होते ही हमारे शरीर का खून
पिघलने लगता है, इसलिए माघ माह में सूर्य की
प्रथम किरण धरती पर पड़ने से पूर्व हमारा पेट साफ और हल्का होना चाहिए। सरसों का साग, गन्ने के रस की खीर और मोठ की
खिचड़ी तीनों हमारे पेट को साफ कर हमें निरोगी बनाती हैं। इस प्रकार हमारे पूर्वजों ने इस पर्व पर स्वास्थ्य को प्रमुखता
दी।
मेला माघी का इतिहास
श्री मुक्तसर साहिब शहर के
इतिहास से संबंधित 40 मुक्तों की स्मृति में 14 जनवरी को लोहड़ी के दूसरे दिन
भारी मेला माघी भरता है। मेले में देश ही नहीं विदेशों से भी श्रद़धालु पहुंचते
हैं। पहली माघ को मकर संक्रांति को लगने वाले इस मेले के दिन दूर दराज से आने वाले
श्रद़धालु सरोवर में स्नान करते हैं तथा दशमेश गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के
चालीस मुक्तों को नतमस्तक होते हैं।
श्री मुक्तसर साहिब
का इतिहास जानने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें
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