पिछले डेढ़ साल में महंगाई ने भी सबको खूब रुलाया। इसका बड़ा कारण पेट्रोल व डीजल के मूल्यों पर अत्यधिक करों की मार रही। बैंक ब्याज की दरों में भी कोई बदलाव नहीं हुआ। असंगठित क्षेत्रों में कार्य करने वाले करीब साठ फीसद लोगों ने महामारी की दोनों लहरों के दौरान अपने रोजमर्रा के खर्चों को चलाने के लिए किसी न किसी स्रोत से पैसा उधार लिया।
पिछले कुछ माह अच्छे बीते ही थे कि फिर से कोरोना ने ओमीक्रोन के रूप में भारत में पैर रख दिए। संक्रमण के आंकड़े कुछ ही दिनों में भयानक रूप ले चुके हैं। रोजाना के आंकड़ों से हर व्यक्ति भयभीत महसूस कर रहा है। निश्चित रूप से भयभीत होने के पीछे पहला कारण यही है कि हरेक को खुद की और अपने परिवार की चिंता है। पहली और दूसरी लहर में बहुत से लोगों ने अपनों को खोया। लेकिन संतोष की बात यह है कि देश में टीकाकरण का आंकड़ा डेढ़ सौ करोड़ के पार निकल गया है, जो कि एक वर्ष की अल्पावधि में निश्चित ही बड़ी कामयाबी है।
इसके साथ-साथ किशोरों के लिए टीकाकरण की शुरुआत भी उत्साहजनक है। फिर भी अगर पहली और दूसरी लहर को मौजूदा तीसरी लहर के साथ तुलनात्मक रूप में देखा जाए तो आम आदमी के मन में टीकाकरण से जहां एक तरफ सुरक्षा का भाव बना है, वहीं दूसरी तरफ आर्थिक पक्ष को लेकर वह फिर से चिंतित हो उठा है। उसके मन से आशंकाएं खत्म होने का नाम नहीं ले रही हैं। इन आशंकाओं के पीछे की हकीकत बड़ी कठोर है जो हम झेल चुके हैं।
पहली लहर के दौरान हर किसी ने अपने जीवन में पहली बार अर्थव्यवस्था में पूर्ण तालाबंदी देखी थी जिसने हर किसी के आर्थिक जीवन को हिला कर रख दिया था। उस दौरान पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर पच्चीस फीसद नीचे चली गई थी। ऐसा होना स्वाभाविक भी था क्योंकि पूर्णबंदी की वजह से अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों तक में उत्पादन ठप हो गया था। करोडोÞं लोगों का रोजगार चला गया था।
अर्थव्यवस्था को लगे उस झटके से हम अभी तक नहीं उबर नहीं पाए हैं। अब समस्या यह है कि तीसरी लहर का प्रकोप अपना असर दिखाने लगा है। और इससे बचाव के उपायों के लिए सरकारें फिर से ऐसी पाबंदियां लगा रही हैं जिनसे आर्थिक गतिविधियों पर असर पड़े बिना रह नहीं सकता। इस खतरे को ज्यादातर महसूस करने वाले आम आदमी ही हैं। इनमें मजदूरों, श्रमिकों से लेकर वे सभी लोग शामिल हैं जो रोजाना कमा कर घर चलाते हैं। इसके आलावा निजी क्षेत्र में रोजगार में लगे लोगों के समक्ष भी संकट कम नहीं हैं। आज भी लोग कम वेतन और वेतन कटौती जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि भारतीय अर्थव्यवस्था ने कोरोना के झटकों से उबरने की कोशिश की है। लेकिन इस हकीकत से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि महामारी के कारण पिछले दो साल में आम आदमी के आर्थिक जीवन में जो संकट आए, उनसे वह अभी तक बाहर नहीं सका है। अगर आंकड़ों से समझने की कोशिश करें तो दिसंबर 2021 में भारत में बेरोजगारी की दर 7.9 फीसद थी, जबकि कोरोना से पहले के दो वित्तीय वर्षों में यह औसतन पांच फीसद थी। हालांकि पहली लहर के बाद के दिसंबर 2020 में यह दर 9.1 फीसद थी।
यह सच्चाई है कि डेढ़ साल बाद भी आज रोजगार के आंकड़े कोरोना से पहले के आंकड़ों के बराबर नहीं पहुंच पाए हैं। मार्च 2019-20 के रोजगार के आंकड़े और दिसंबर 2021-22 के रोजगार के आंकड़ों को अगर तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो इसमें करीब उनतीस लाख लोगों के रोजगार का नुकसान देखने को मिलता है। अगर वेतनभोगी व्यक्तियों की बात की जाए तो उनमें 2.2 फीसद की कमी इस समय के दौरान हुई है जो यह पूर्णतया स्पष्ट करती है कि उनके पास आज रोजगार नहीं है। कोरोना आने से पहले भारत में वेतन भोगियों की संख्या कुल रोजगार में 21.2 फीसद थी।
इसके अलावा एक आंकड़ा जो बहुत ज्यादा भयभीत करता है, वह यह कि महामारी के इस डेढ़ साल के दौरान दस लाख से ज्यादा उद्यमी अपना व्यवसाय या कारोबार बंद करने को मजबूर हुए। इस संदर्भ में यह उल्लेख करना आवश्यक है कि इन अठारह महीनों से अधिक समय में सबसे ज्यादा अनठानवे लाख रोजगारों नुकसान विनिर्माण क्षेत्र से जुड़ी नौकरियों में हुआ। सेवा क्षेत्र में यह नुकसान सबसे ज्यादा होटल, पर्यटन और शिक्षा के क्षेत्र में हुआ। इन हालात को देख कर ही लोग अब डरे हुए हैं और उन्हें लग रहा है कि कहीं तीसरी लहर के कारण फिर से वैसे हालात न बन जाएं।
आम आदमी के मन में डर का दूसरा कारण समाज में स्वास्थ्य संबंधित सुविधाओं के स्तर को लेकर है। दूसरी लहर के दौरान स्वास्थ्य सुविधाओं में कमी के कारण जिस बड़ी संख्या में लोग मारे गए, उसे आसानी से नहीं भुलाया जा सकता। हालांकि आज सुरक्षा कवच के रूप में कोरोना के टीके उपलब्ध है, लेकिन विषाणु के नए-नए रूपों ने खतरे को और बढ़ा दिया है। वैसे हकीकत तो यही है कि दूसरे देशों के मुकाबले भारत में स्वास्थ्य संबंधित सुविधाओं पर शोध और विकास की आज भी भारी कमी है।
आंकड़े बताते हैं कि करोना से पहले के वित्तीय वर्ष में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य खर्च मात्र 1944 रुपए था जो जीडीपी का मात्र 1.29 फीसद था। जबकि अमेरिका में यह आंकड़ा 14.3 फीसद, जापान में 9.2 फीसद, ब्रिटेन में 7.5 फीसद, इटली में 6.5 फीसद, ब्राजील में 3.9 फीसद व चीन में 2.9 फीसद है। जबकि आबादी के मामले में भारत दुनिया में दूसरे स्थान पर है। स्वास्थ्य सेवाओं पर इतना कम खर्च जहां चिकित्सा सुविधाओं की की भारी कमी को बताता है तो वहीं पर इसी कारण हमारे यहां प्रति व्यक्ति कार्य क्षमता भी तुलनात्मक रूप से कम है।
आज आमजन अपने बच्चों के भविष्य को लेकर काफी चिंतित हैं। पिछली दो लहरों के दौरान बच्चों की पढ़ाई का न केवल नुकसान हुआ है, बल्कि परीक्षाओं और भविष्य को लेकर भी सवाल खड़े हो गए हैं। इसका बच्चों पर काफी बुरा असर देखने को मिला है। अब फिर से स्कूलों को आंशिक या पूर्ण रूप से बंद कर दिया गया है। क्या यह आवश्यक प्रतीत नहीं होता है कि सरकारों को इस तीसरी लहर से पहले के समय के दौरान आनलाइन शिक्षा प्रणाली के संबंध में एक दूरगामी सोच के साथ आवश्यक ठोस कदम उठाने चाहिए थे।
यह सही है कि आनलाइन माध्यम ने शिक्षा से संबंधित कामकाज को ठप होने से बचाया है, परंतु इस संदर्भ में यह समझना भी आवश्यक है कि क्या गांवों या दूर-दराज में बैठे व्यक्ति के पास इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है? क्या एक आम आदमी के पास सूचना तकनीक युग की वे सभी जरूरी सुविधाएं मौजूद हैं जिसके माध्यम से वह अपने बच्चे को आनलाइन शिक्षा से जोड़ सके?
पिछले डेढ़ साल में महंगाई ने भी सबको खूब रुलाया। इसका बड़ा कारण पेट्रोल व डीजल के मूल्यों पर अत्यधिक करों की मार रही। बैंक ब्याज की दरों में भी कोई बदलाव नहीं हुआ। असंगठित क्षेत्रों में कार्य करने वाले करीब साठ फीसद लोगों ने महामारी की दोनों लहरों के दौरान अपने रोजमर्रा के खर्चों को चलाने के लिए किसी न किसी स्रोत से पैसा उधार लिया। हालांकि अब कई रिपोर्टों में यह दावा किया जा रहा है कि आने वाले समय में अर्थव्यवस्था में शानदार प्रगति होगी। लेकिन मौजूदा हालात देख कर कोई भी इस बात को मानने को तैयार नहीं है।
विजय गर्ग
सेवानिवृत्त प्राचार्य
मलोट