इस बार विश्व वन्यजीव दिवस की यह थीम बड़ी महत्वपूर्ण समझी जा रही है। इस बार की चर्चा उन प्रजातियों के संरक्षण पर केंद्रित होगी, जिनका पारिस्थितिकी संरक्षण में सबसे बड़ा योगदान है। लगातार कई दशकों में सबसे ज्यादा उपेक्षा वन्यजीवों की हुई। हमने मोटे तौर पर बाघ, शेर व हाथी के संरक्षण पर जरूर चिंता जताई होगी, क्योंकि उनका विलुप्त होना दिखाई देता है, लेकिन आज वनस्पतियों और अन्य जीवों की ऐसी प्रजातियां लुप्त हो रही हैं, जो पारिस्थितिकी तंत्र को स्थिर रखती हैं। हम यह नहीं जान पाए कि जब से मनुष्य ने पृथ्वी पर अपना आधिपत्य जमाया, तब से वह कितनी तरह की प्रजातियों को खो चुका है। मोटे रूप में करीब 8,400 वन्यजीव और वनस्पति-प्रजातियों को हम खतरे में डाल चुके हैं और यह माना जा रहा है कि करीब 30,000 प्रजातियों के अस्तित्व पर बड़े सवाल खड़े हो चुके हैं। इससे पहले यह भी माना गया है कि अगर ऐसा ही रहा, तो हम आने वाले समय में करीब 10 लाख प्रजातियों को विलुप्ति की तरफ धकेल देंगे। हमने विलुप्त होती प्रजातियों की चर्चा अवश्य की है, लेकिन इन प्रजातियों में चाहे, वन्यजीव हों या वनस्पति प्रजातियां, इनकी विलुप्ति से सीधे कौन से प्रतिकूल असर होंगे, इसका शायद अगर हमारे पास आंकड़ा होता, तो हम इस ओर ज्यादा गंभीर होते। किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र का पूरा स्वास्थ्य शायद सीधे मानव जीवन के साथ भी जुड़ा है, क्योंकि अगर बिगड़ती हवाएं हमारे सीधे श्वसन तंत्र पर आक्रमण कर सकती हैं, तो यह कहीं न कहीं जलवायु से जुड़ा है। शुद्ध पानी की बात हो या हमारे भोजन से जुड़े जितने भी मुद्दे और सवाल हैं, वे भी पारिस्थितिकी तंत्र से सीधा रिश्ता रखते हैं।
पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को एक ऐसे ताने-बाने से पृथ्वी ने 4.6 करोड़ वर्षों की मेहनत से बुना है, जिसमें हर एक छोटे-मोटे जीवन या अजैविक तत्वों का परस्पर महीन रिश्ता है। इनकी परस्पर निर्भरता है और यही कारण है कि अगर किन्हीं कारणों से यह निर्भरता टूटती है, तो पारिस्थितिकी तंत्र में उथल-पुथल मच जाती है। अब जैव-विविधता को खोने का कारण स्वयं मनुष्य ही हैं। आईयूसीएन की रिपोर्ट के अनुसार, 121 पौधों की प्रजातियां व 735 जीव-जंतुओं की प्रजातियां ‘रेड लिस्ट’ में आ गई हैं। एक तिहाई प्रजातियां खतरे की श्रेणी में आ चुकी हैं, इसमें 41 फीसदी उभयचर, 25 फीसदी स्तनधारी व 13.30 फीसदी पक्षियों की प्रजातियां हैं। ये 63,838 प्रजातियों के अध्ययन के बाद के आंकड़े हैं, जो पृथ्वी में कुल उपलब्ध प्रजातियों की मात्र चार फीसदी ही हैं, मतलब 96 प्रतिशत प्रजातियों का तो अध्ययन भी नहीं हुआ है। हमारी तमाम तरह की शिक्षा में प्रकृति विज्ञान व तंत्र की समझ न के बराबर है, क्योंकि अगर यह शिक्षा का शुरुआती दौर से ही हिस्सा होता, तो शायद हम अपने पारिस्थितिकी तंत्र की समझ बढ़ाकर रखते और वही हमारी विकास की नीतियों में भी झलकता।
पिछले कुछ समय से अगर यह भी देख लें कि हमने प्रतिवर्ष किस दर से वनों को खोया है, तो कुछ गंभीरता शायद हमारी समझ में आएगी। आंकड़ा सामने है। दुनिया भर में प्रतिवर्ष हम 10.90 करोड़ हेक्टेयर वन खो देते हैं। यह भी समझिए कि अमेजन जो दुनिया का फेफड़ा कहलाता है, हर मिनट एक फुटबॉल मैदान के बराबर वन खो देता है। आज हमें यह भी जानना चाहिए कि 400 डार्क जोन समुद्र में पहले ही बन चुके हैं, इसका मतलब है कि इन क्षेत्रों में जीवन शून्य हो चुका है।
हमने दुनिया भर में वन्यजीवों के संरक्षण के लिए अभयारण्य रखे हैं, लेकिन ये अभयारण्य घातों का शिकार बने हैं। यह मात्र कुप्रबंधन के सवाल खड़े नहीं करता, बल्कि ज्यादा महत्वपूर्ण सामूहिक भागीदारी की तरफ इशारा करता है, जो कि शून्य है। अपने देश में ही देखिए। हर दो दिन में एक बाघ के मरने का आंकड़ा पिछले दिनों ही आया है। अभी भी हम अपनी शिक्षा में गंभीरता से अपने उस जीवन को नहीं समझ पाए, जो किसी न किसी रूप में हमारी आर्थिकी, भोजन व हमारी अन्य जरूरतों में बड़ा योगदान करते हैं, जो मनुष्य के जीवन से सीधे जुड़े हैं। जब तक ऐसी बड़ी समझ नहीं बनेगी, तब तक हम इस तरह के दिवस दिखावे के लिए हर वर्ष मनाते रहेंगे।
विजय गर्ग
सेवानिवृत्त प्राचार्य
मलोट